पत्र एवं पत्रकारिता >> प्रिय राम प्रिय रामनिर्मल वर्मा
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प्रस्तुत है रामकुमार वर्मा के नाम लिखे गये पत्र
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निर्मल वर्मा के निधन के बाद यह उनकी पहली
पुस्तक है। बड़े भाई चित्रकार
रामकुमार को लिखे पत्र। हालाँकि यहाँ संकलित और उपलब्ध अधिकतर पत्र निर्मल
वर्मा ने साठ के दशक में प्राग से लिखे थे। उनमें गूँजती अन्तरंगता,आपसी
विश्वास और कही-अनकही की ध्वनियाँ दोनों भाइयों के सुदूर बचपन में जाती
हैं। दोनों भाई शुरु से ही स्वप्नजीवी थे,एक-दूसरे के आन्तरिक जीवन और
सूक्ष्म जिज्ञासा की पैठ रखते थे और भली-भाँति जानते थे कि एक रचनाकार का
जीवन भविष्य में उनकी कैसी कठिन परीक्षाएँ लेगा। दोनों की कल्पनाशीलता ने
अपने रचना-कर्म के लिए कठिन रास्तों का चुनाव किया और दोनों इस श्रम-साध्य
और तपस यात्रा से तेजस्वी होकर अपने समय के शीर्ष रचनाकार बनकर स्थापित और
सम्मानित हुए। इन पत्रों में निर्मल वर्मा के प्राग जीवन की छवियाँ हैं और
स्वदेश लौटने के बाद का अंकन है। उनके जीवन के ऐसे वर्ष,जिनकी लगभग कोई
जानकारी अब तक उपलब्ध नहीं थी। इन पत्रों में निर्मल जी का जिया हुआ वह
जीवन है, जो बाद में उनके कथा-साहित्य का परिवेश बना। इन पत्रों में
व्यक्ति निर्मल वर्मा का नैतिक राजनैतिक विकास है,जो बाद के वर्षों में
अपने समय की एक प्रमु और प्रखर असहमति की आवाज बना। इन पत्रों का सम्पादन
निर्मल जी की पत्नी और सहधर्मिणी श्रीमती गगन गिल ने किया है। अपनी
पारिवारिक भूमिका में उन्होंने इन पत्रों के प्रमुख पात्रों को बहुत करीब
से देखा है। उनके द्वारा दिये हुए फुट नोट्स से पाठकों को घटनाओं की
पृष्ठभूमि समझने में मदद मिलेगी। इन पत्रों से निर्मल वर्मा के रचना-संसार
में पैठ करने के कई नये दरवाजे खुलेगें,ऐसा निश्चित है।
भूमिका
‘लिखना जैसे मेरे जीने का सहारा है...’
यह शुरू से शुरू नहीं है। अभी मेरी त्वचा उनसे जुड़ी हुई है जबकि वह कहीं
दूर चले गये हैं। लेकिन दूर भी कहाँ ? उसाँस लेती हूँ तो लगता है सुन रहे
हैं। हाथ की लिख छोड़ी चीज़ छूती हूँ तो उनकी छुअन महसूस होती है। कागज़
में उनकी उँगलियों की गरमायी।
मुझे नहीं मालूम था, इतनी जल्दी मैं उनकी चीज़ें सहेजने में जुट जाऊँगी। लगता था, बहुत साल लगेंगे। लेकिन जाते-जाते भी उन्होंने जैसे मेरी परीक्षा ली। निर्मल जी। मेरे निर्मल जी। उन्होंने मुझे जीना सिखाया। मैं जो जब उन्हें मिली थी, तो मरने की आकांक्षा, मरने की ज़िद से भरी बैठी थी। जुलाई 1979 में पौने बीस साल की मैं। अभी-अभी पचास पूरे कर चुके निर्मल जी। मुझे क्या मालूम था, बरसों बाद एक दिन मैं उन्हें इतने कष्ट में देखूँगी कि उनकी नहीं, मेरी साँस भी कण्ठ में से फँस-फँस कर बाहर आयेगी।
मुझे ताज्जुब तब हुआ, जब पिछले वर्ष, अभी-अभी वेंटिलेटर के मारक कष्ट में से निकले निर्मल जी ने साउथ अफ्री़की नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक जे. एम. कोएत्ज़ी की एक किताब पढ़कर दूसरी शुरू कर दी। कोएत्ज़ी इधर के वर्षों के हमारे प्रिय लेखक रहे हैं, मनुष्य के तलघर में उतार देने वाले अद्भुत रचनाकार। ऐसे अँधेरों में से गुज़र कर ही जैसे हम अपने जीवन के उजाले के प्रति सजग होते थे। एक दिन मैंने पूछा भी, ‘इतने कष्ट में कैसे पढ़ लेते हैं ?’ उन्होंने कहा था, ‘सब प्राणियों में एक मनुष्य ही तो ऐसा प्राणी है, जिसके पास मानस है। माइंड, जिससे वह इस पृथ्वी पर अपने होने का अर्थ समझ सकता है। आखिर तक हमें इसका शोधन करते रहना चाहिए।’ इससे पहले कि मैं उन पर पीड़ा की छाया देखती, उन्होंने पीड़ा को अपनी छाया से ढँक दिया था... हम धीरे-धीरे आखिर तक जा रहे थे। बिना जाने या शायद हम भी अपनी ज़िद पर कायम थे। बचने की नहीं, जीने की ज़िद पर।
‘आख़िर तक’ में कितनी परीक्षाएँ उन्होंने दीं। कितनी मुझे देनी पड़ेंगी। ऐसी एक परीक्षा में मुझे बैठा कर वह चले गये हैं...
मैं उनके दूसरे कागज़ ढूँढ़ रही थी, दुनियादारी वाले कागज़, दुनिया के घात-अपघात से निकाल लाने वाले कागज़ जिनकी ज़रूरत मुझे उनके जाते ही पड़ गयी थी। लेकिन यह निर्मल जी का आशीर्वाद ही रहा होगा, कि दुनियादारी के उन कागज़ों के साथ वे कागज़ भी मेरे हाथ आते गये, जिनसे मेरा विकट समय प्रयोजनमय होने वाला था। उनके जाने के कुछ दिन बाद एक शाम जब छोटी भाभी जी राम को लिखे निर्मल के पत्रों का पुलिन्दा साथ लेती आयीं तो मैं हैरान उन्हें देखती रह गयी। वह मुझे कागज़ सँभालते देख चुकी थीं। निर्मल के सब पत्र सिलसिलेवार लगाकर लायीं थीं।
छोटी भाभी जी, रामकुमार। मेरे ब्याहता जीवन के दो उज्जवल बिन्दु। इन सोलह वर्षों में उनके होने में मेरा सुख समाया हुआ था। अब दुख भी उनमें ही समाएगा, ऐसा लग रहा है। वे दोनों मुझे बहू बनाकर घर लाये थे। भाभी जी ने मंगल-सूत्र पहनाया था। उस रात अस्पताल से निर्मल-देह लेकर लौटे, तो दोनों मेरे साथ ही थे...
करीब दस साल पहले जब मैं रामकुमार के कृतित्व पर वढेरा आर्ट गैलरी के लिए एक सन्दर्भ पुस्तक सम्पादित कर रही थी, ‘ए जर्नी विदइन’, रामकुमार मेरे लिए शोध का विषय थे। निर्मल जी को जब मैं राम से हुई अपनी बातचीत के ब्यौरे बताती, वह खूब हँसते। खासकर जब मैं बताती कि आज इंटरव्यू के दौरान राम ने बीस सिगरेटें पीं। राम के धूम्रपान का सीधा सम्बन्ध टेप रिकॉर्डर के ऑन होने से जुडा़ था, जैसे ही मैं उसे बन्द करती, उनका सारा तनाव उड़ जाता। राम से जितनी भी सुन्दर बातें होतीं, तभी हो पातीं, जब टेप रिकॉर्डर बन्द होता। उन दिनों मैं कभी राम से मिलकर घर लौटती, तो निर्मल सबसे पहले यही सवाल करते, ‘आज रामकुमार ने कितनी सिगरेटें पीं ?’
दोनों भाई अपने-अपने क्षेत्र में कला की सुघड़ता के, कला के सत्य के कितने आग्रही रहे हैं, यह मेरे सीखने के लिए एक बड़ा पाठ रहा है। कला का सत्य स्वयं रचनाकार का सत्य हो, सार्वजनिक और निजी-दोनों आकाशों में गूँजता हुआ-यह दोनों की जीवन भर की साधना है। रामकुमार के अमूर्त चित्रों में मनन की गहन छवियाँ किस प्रकार हमें ठिठका कर अवाक कर देती हैं, सब जानते हैं।
निर्मल जी को एक-एक शब्द की प्रतीक्षा में घण्टों बैठे हुए मैंने देखा है। और फिर उन शब्दों को, जो नाड़ियों के जाने कौन से अंधेरे को लांघकर उनके कोरे कागज़ तक पहुँचते थे, काटते हुए भी। वह ईमानदार शब्द और सत्यवान शब्द के बीच अन्तर कुछ ही क्षणों में पकड़ लेते थे। उनकी कलम एक योगी की तरह शान्त और हत्यारे की तरह उत्सुक रहती थी। इतनी कष्टप्रद प्रक्रिया के बाद पाये एक-एक शब्द को वह उसी निस्संग निर्ममता से काट-छाँट देते थे-उनकी कॉपी जैसे किसी संग्राम में क्षत-विक्षत होकर मेरे तक पहुँचती थी। तिस पर भी मैं उन्हें दुबारा, तिबारा ड्राफ़्ट बनाने का श्रम-साध्य कार्य करते हुए देखती, तब भी जब उन्हें वे पन्ने केवल मुझे ही टाईप करने के लिए देने होते थे। विशेषकर ‘अंतिम अरण्य’ को टाईप करने के दिनों में मैंने उनके लिखे लगभग हर शब्द को उनकी रगों में से बाहर उजाले की ओर आते देखा था। साक्षात।
एक तरह से, और शायद सच्ची तरह से, निर्मल जीवन भर अपने भाई के छोटे भाई रहे। उन्होंने साहित्य का परिचय, लेखन और कला का संस्कार रामकुमार से ही लिया था। कला के रहस्यों को जानने का उल्लास, जो सुदूर बचपन में शुरू हुआ था, जीवन-पर्यंत बना रहा। एक ज़माना पहले, लगभग बीस साल की वयस में, शिमला के ग्लेन झरने पर मित्रों के साथ पिकनिक मनाते हुए, निर्मल ने रामकुमार को याद किया था। अभी उनके कागजों में एक चित्र मिला, कुछ सोचते-से बैठे हैं, हल्की मूँछें, पीछे मित्रों का झुण्ड। तस्वीर के पीछे लिखा था-A day in Glen. To Dearest Ram Kumar-who is more then a brother…., a sympathetic and sincere friend. Nirmal, 3 July, 1950.
जीवन भर दोनों भाइयों में स्नेह का नाजुक धागा बँधा रहा, बड़ी मज़बूती से। वे कहे के साथी थे, और अनकहे के भी। एक-दूसरे को देखकर वे जैसे उल्लसित हो उठते, हम पत्नियों के लिए विस्मिय का विषय था। ‘इनकी कभी लड़ाई नहीं होती ?’ मैं और छोटी भाभी जी एक दूसरे से पूछतीं। उनके इस स्नेह के जादुई घेरे को कैसे उत्सुकता, विस्मय से हम देखती थीं !
बाद के वर्षों में जैसे-जैसे निर्मल एक बौद्धिक सामाजिक भूमिका में अवस्थित होते गये, रामकुमार अपने भीतर की सीढ़ियाँ उतरते गये। पारिवारिक बैठकों में कई बार राम ने उन्हें उनकी आलोचना के क्रूर पक्ष से आगाह किया, लेकिन निर्मल के सारे संवेग हमारे अराजक समय में एक अर्थवान हस्तक्षेप करने में संलग्न हो चुके थे। यह विचार के प्रति उनकी गहरी आस्था थी, जिसके चलते हम उन्हें न रोक सकते थे, न बचा सकते थे, केवल लहूलुहान होते देख सकते थे। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता उन्हें बेहद अकेला कर रही थी, उनके अपने इस अकेलेपन में भी अन्त तक वह कितने तेजस्वी बने रहे-इस तथ्य से उनके घोर विरोधी भी इनकार नहीं कर सकते।
निर्मल जी के व्यक्तिगत जीवन की बहुत कम जानकारी पाठकों को है। अपने जीवन-काल में अपने पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में शायद ही कभी उन्होंने कुछ कहा हो। हाँ, माँ जी, बाऊ जी, बाबा जी, रामकुमार की बात यह बेझिझक कर लेते थे। स्वयं मेरे लिए निर्मल जी के जाने के बाद रामकुमार को लिखे उनके पत्र पढ़ना एक गहन अनुभव था।
मैं उन्हें जैसे एक चलचित्र में देख रही थी। एक संघर्षरत युवा लेखक, विदेश में अभावग्रस्त एक कलाप्रेमी, एक नन्हीं बच्ची के नये-नये बने पिता की उलझनें, पहली पत्नी बकुल के साथ उनके जीवन की झलक, जब वे युवा दम्पती विदेश में गृहस्थी जमाने की जुगत कर रहे थे, कम्युनिज़्म से उनकी गहरी निराशा, प्राग की बदलती राजनीतिक परिस्थितियों पर उनकी टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में छपीं टिप्पणियों की पीठिका, भीतर जमा होती रचनात्मक ऊर्जा, भारत लौटने की ललक, और अन्त में जीवन की विकट परीक्षाओं से गुज़रते हुए इस सत्य का अर्जन-लिखना ‘जैसे वह जीने का बहुत बड़ा सहारा हो’-रामकुमार को लिए 11 नवंबर, 1974 के पत्र (क्रमांक 39) में उन्होंने स्वीकार किया था। इस स्वप्निल ‘सहारे’ के लिए उन्हें अपने जीवन के कई वास्तविक, सुविधापूर्ण सहारे त्यागने के साहसपूर्ण फ़ैसले करने पड़े थे, जैसा रामकुमार को लिखे उनके इन पत्रों से स्पष्ट होगा। निर्मल जी के जीते-जी और मृत्युपरांत भी उन पर तरह-तरह के क्षुद्र आक्षेप होते रहे हैं। इन अर्द्धसत्यों ने उनके बहुत सारे पाठकों को विचलित किया है, मुझे भी। लेकिन अब वह आइने के दूसरी ओर चले गये हैं और मेरे पास दुनिया से साझा करने के लिए केवल यह आग है, उनके दस्तावेजों की आग, जिसमें से तप कर वह गुज़रे थे...
ये पत्र अपनी ऐतिहासिकता में आज इसलिए महत्वपूर्ण हैं, कि इनमें उनके मोहभंगों के सूत्र हैं। वह एक दिन में कम्युनिस्ट-विरोधी नहीं हो गये थे और न एक दिन में भारत-प्रेमी। उनकी प्रज्ञा मूलतः प्रश्नाकुल थी, आलोचक नहीं। अपने इस अदम्य साहस में वह उपनिषदिक परम्परा के उत्तराधिकारी कहलाने के अधिक निकट थे, बजाय औपनिवेशिक संस्कृति की पैदावार होने के।
अंग्रेज़ सरकार में पिता की नौकरी के कारण उनकी तालीम में अंग्रेज़ियत की प्रमुख भूमिका रही थी, और इसी कारण उन्हें ‘भारतीयता’ उतनी सहजता और बिना फांक उपलब्ध नहीं हुई थी, जितनी उनके कई मुखर आलोचकों को। लेकिन उन्होंने अपनी इस ऐतिहासिक स्थिति विशेष को न शर्मसारी का सबब बनने दिया, न अहं का। उनके आलोचक उन्हें शर्मसार करने में जुटे रहे, और उनके अधिकतर दुनियादार साथी अंग्रेज़ी दुनिया में सिक्का जमाने में।
निर्मल जी दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफ़न्स कॉलेज से निकलने वाले एक मात्र लेखक हैं जिन्होंने हिन्दी जैसी सादी भाषा को चुना। (सादी भाषा चुनना कई मायनों में सादी दुलहिन चुनने जैसा होता है, जहाँ आप उसके प्रेम के प्रति आश्वस्त होते हैं और दहेज न लाने के प्रति भी !) बरसों पहले, और आज भी, जब अधिकांश भारती विदेशी जूठन बनने के लिए प्रस्तुत थे/हैं, निर्मल जी केवल अपने अन्तःकरण की आवाज़ सुनकर भारत लौट आये थे, जैसा इन पत्रों से स्पष्ट है। उन्होंने अपनी अस्मिता की भारतीय पहचान को टुकड़ा-टुकड़ा अर्जित किया था। न केवल अपने लिए, बल्कि अपने जैसे उन सब व्याकुल सुधीजनों के लिए, जो एक औपनिवेशिक दास-समय द्वारा स्वयं के रेखांकित किये जाने से उनकी ही तरह व्यथित थे।
प्रायः निर्मल जी के अभावग्रस्त जीवन की चर्चा की जाती है, लेकिन मैं नहीं समझती, निर्मल जी ने जानते-बूझते अभाव का जीवन चुना था। उन्होंने केवल चुनाव किया था, उस भाषा में लिखने का चुनाव, जो उन्हें उनकी माँ की, उनके स्वप्न की बातचीत की भाषा थी। वह भाषा उन्हें जीवन भर साधारण वित्त का रखने वाली है, इस पर तो उन्होंने शायद कभी सोचा भी नहीं होगा, किसी के आगाह करने पर भी नहीं।
वह स्वप्न और आदर्श में जीने वाले व्यक्ति थे। जीवन के अन्तिम समय तक न उनके आदर्श धुँधले पड़े न उनके स्वप्न और निर्मल जी थे, कि जाते-जाते दोनों चीज़ें अक्षुण्ण पीछे छोड़ गये। और अपनी अदम्य, अथक जिजीविषा-जिसे अब मुझे और उनके पाठकों को भरपूर जी कर पूरा करना है। ऐसी परीक्षा वह हमारी जाते-जाते ले गये हैं...
निमर्ल जी को गये अभी दो माह ही हुए हैं। उनके जाने के बाद उनके कागज़ों को मैंने लगभग एक अन्धे व्यक्ति की तरह छुआ था, बिना किसी उम्मीद के, बिना यह जाने कि वह मेरे एकान्त को अपने कागज़-पत्रों से भर गये हैं...निर्मल जी के जाने के बाद उनकी असंकलित रचना-यात्रा की यह प्रथम प्रस्तुति है। अपने भाई चित्रकार रामकुमार को लिखे पत्र। आशा है, ये पत्र अपने समय के इन दो महान रचनाकारों की रचना-यात्रा की अंतरंगता को समझने में मदद करेंगे। मेरी भरसक चेष्टा होगी, कि मैं जल्द से जल्द निर्मल जी का अप्रकाशित लेखन, उस लेखन की छायाएं आपको समर्पित कर सकूँ। उनकी सारी एकांत साधना एक दिन अपने सब पाठकों से इस बिन्दु पर पहुँच कर मिलने के लिए ही तो थी !
मुझे नहीं मालूम था, इतनी जल्दी मैं उनकी चीज़ें सहेजने में जुट जाऊँगी। लगता था, बहुत साल लगेंगे। लेकिन जाते-जाते भी उन्होंने जैसे मेरी परीक्षा ली। निर्मल जी। मेरे निर्मल जी। उन्होंने मुझे जीना सिखाया। मैं जो जब उन्हें मिली थी, तो मरने की आकांक्षा, मरने की ज़िद से भरी बैठी थी। जुलाई 1979 में पौने बीस साल की मैं। अभी-अभी पचास पूरे कर चुके निर्मल जी। मुझे क्या मालूम था, बरसों बाद एक दिन मैं उन्हें इतने कष्ट में देखूँगी कि उनकी नहीं, मेरी साँस भी कण्ठ में से फँस-फँस कर बाहर आयेगी।
मुझे ताज्जुब तब हुआ, जब पिछले वर्ष, अभी-अभी वेंटिलेटर के मारक कष्ट में से निकले निर्मल जी ने साउथ अफ्री़की नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक जे. एम. कोएत्ज़ी की एक किताब पढ़कर दूसरी शुरू कर दी। कोएत्ज़ी इधर के वर्षों के हमारे प्रिय लेखक रहे हैं, मनुष्य के तलघर में उतार देने वाले अद्भुत रचनाकार। ऐसे अँधेरों में से गुज़र कर ही जैसे हम अपने जीवन के उजाले के प्रति सजग होते थे। एक दिन मैंने पूछा भी, ‘इतने कष्ट में कैसे पढ़ लेते हैं ?’ उन्होंने कहा था, ‘सब प्राणियों में एक मनुष्य ही तो ऐसा प्राणी है, जिसके पास मानस है। माइंड, जिससे वह इस पृथ्वी पर अपने होने का अर्थ समझ सकता है। आखिर तक हमें इसका शोधन करते रहना चाहिए।’ इससे पहले कि मैं उन पर पीड़ा की छाया देखती, उन्होंने पीड़ा को अपनी छाया से ढँक दिया था... हम धीरे-धीरे आखिर तक जा रहे थे। बिना जाने या शायद हम भी अपनी ज़िद पर कायम थे। बचने की नहीं, जीने की ज़िद पर।
‘आख़िर तक’ में कितनी परीक्षाएँ उन्होंने दीं। कितनी मुझे देनी पड़ेंगी। ऐसी एक परीक्षा में मुझे बैठा कर वह चले गये हैं...
मैं उनके दूसरे कागज़ ढूँढ़ रही थी, दुनियादारी वाले कागज़, दुनिया के घात-अपघात से निकाल लाने वाले कागज़ जिनकी ज़रूरत मुझे उनके जाते ही पड़ गयी थी। लेकिन यह निर्मल जी का आशीर्वाद ही रहा होगा, कि दुनियादारी के उन कागज़ों के साथ वे कागज़ भी मेरे हाथ आते गये, जिनसे मेरा विकट समय प्रयोजनमय होने वाला था। उनके जाने के कुछ दिन बाद एक शाम जब छोटी भाभी जी राम को लिखे निर्मल के पत्रों का पुलिन्दा साथ लेती आयीं तो मैं हैरान उन्हें देखती रह गयी। वह मुझे कागज़ सँभालते देख चुकी थीं। निर्मल के सब पत्र सिलसिलेवार लगाकर लायीं थीं।
छोटी भाभी जी, रामकुमार। मेरे ब्याहता जीवन के दो उज्जवल बिन्दु। इन सोलह वर्षों में उनके होने में मेरा सुख समाया हुआ था। अब दुख भी उनमें ही समाएगा, ऐसा लग रहा है। वे दोनों मुझे बहू बनाकर घर लाये थे। भाभी जी ने मंगल-सूत्र पहनाया था। उस रात अस्पताल से निर्मल-देह लेकर लौटे, तो दोनों मेरे साथ ही थे...
करीब दस साल पहले जब मैं रामकुमार के कृतित्व पर वढेरा आर्ट गैलरी के लिए एक सन्दर्भ पुस्तक सम्पादित कर रही थी, ‘ए जर्नी विदइन’, रामकुमार मेरे लिए शोध का विषय थे। निर्मल जी को जब मैं राम से हुई अपनी बातचीत के ब्यौरे बताती, वह खूब हँसते। खासकर जब मैं बताती कि आज इंटरव्यू के दौरान राम ने बीस सिगरेटें पीं। राम के धूम्रपान का सीधा सम्बन्ध टेप रिकॉर्डर के ऑन होने से जुडा़ था, जैसे ही मैं उसे बन्द करती, उनका सारा तनाव उड़ जाता। राम से जितनी भी सुन्दर बातें होतीं, तभी हो पातीं, जब टेप रिकॉर्डर बन्द होता। उन दिनों मैं कभी राम से मिलकर घर लौटती, तो निर्मल सबसे पहले यही सवाल करते, ‘आज रामकुमार ने कितनी सिगरेटें पीं ?’
दोनों भाई अपने-अपने क्षेत्र में कला की सुघड़ता के, कला के सत्य के कितने आग्रही रहे हैं, यह मेरे सीखने के लिए एक बड़ा पाठ रहा है। कला का सत्य स्वयं रचनाकार का सत्य हो, सार्वजनिक और निजी-दोनों आकाशों में गूँजता हुआ-यह दोनों की जीवन भर की साधना है। रामकुमार के अमूर्त चित्रों में मनन की गहन छवियाँ किस प्रकार हमें ठिठका कर अवाक कर देती हैं, सब जानते हैं।
निर्मल जी को एक-एक शब्द की प्रतीक्षा में घण्टों बैठे हुए मैंने देखा है। और फिर उन शब्दों को, जो नाड़ियों के जाने कौन से अंधेरे को लांघकर उनके कोरे कागज़ तक पहुँचते थे, काटते हुए भी। वह ईमानदार शब्द और सत्यवान शब्द के बीच अन्तर कुछ ही क्षणों में पकड़ लेते थे। उनकी कलम एक योगी की तरह शान्त और हत्यारे की तरह उत्सुक रहती थी। इतनी कष्टप्रद प्रक्रिया के बाद पाये एक-एक शब्द को वह उसी निस्संग निर्ममता से काट-छाँट देते थे-उनकी कॉपी जैसे किसी संग्राम में क्षत-विक्षत होकर मेरे तक पहुँचती थी। तिस पर भी मैं उन्हें दुबारा, तिबारा ड्राफ़्ट बनाने का श्रम-साध्य कार्य करते हुए देखती, तब भी जब उन्हें वे पन्ने केवल मुझे ही टाईप करने के लिए देने होते थे। विशेषकर ‘अंतिम अरण्य’ को टाईप करने के दिनों में मैंने उनके लिखे लगभग हर शब्द को उनकी रगों में से बाहर उजाले की ओर आते देखा था। साक्षात।
एक तरह से, और शायद सच्ची तरह से, निर्मल जीवन भर अपने भाई के छोटे भाई रहे। उन्होंने साहित्य का परिचय, लेखन और कला का संस्कार रामकुमार से ही लिया था। कला के रहस्यों को जानने का उल्लास, जो सुदूर बचपन में शुरू हुआ था, जीवन-पर्यंत बना रहा। एक ज़माना पहले, लगभग बीस साल की वयस में, शिमला के ग्लेन झरने पर मित्रों के साथ पिकनिक मनाते हुए, निर्मल ने रामकुमार को याद किया था। अभी उनके कागजों में एक चित्र मिला, कुछ सोचते-से बैठे हैं, हल्की मूँछें, पीछे मित्रों का झुण्ड। तस्वीर के पीछे लिखा था-A day in Glen. To Dearest Ram Kumar-who is more then a brother…., a sympathetic and sincere friend. Nirmal, 3 July, 1950.
जीवन भर दोनों भाइयों में स्नेह का नाजुक धागा बँधा रहा, बड़ी मज़बूती से। वे कहे के साथी थे, और अनकहे के भी। एक-दूसरे को देखकर वे जैसे उल्लसित हो उठते, हम पत्नियों के लिए विस्मिय का विषय था। ‘इनकी कभी लड़ाई नहीं होती ?’ मैं और छोटी भाभी जी एक दूसरे से पूछतीं। उनके इस स्नेह के जादुई घेरे को कैसे उत्सुकता, विस्मय से हम देखती थीं !
बाद के वर्षों में जैसे-जैसे निर्मल एक बौद्धिक सामाजिक भूमिका में अवस्थित होते गये, रामकुमार अपने भीतर की सीढ़ियाँ उतरते गये। पारिवारिक बैठकों में कई बार राम ने उन्हें उनकी आलोचना के क्रूर पक्ष से आगाह किया, लेकिन निर्मल के सारे संवेग हमारे अराजक समय में एक अर्थवान हस्तक्षेप करने में संलग्न हो चुके थे। यह विचार के प्रति उनकी गहरी आस्था थी, जिसके चलते हम उन्हें न रोक सकते थे, न बचा सकते थे, केवल लहूलुहान होते देख सकते थे। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता उन्हें बेहद अकेला कर रही थी, उनके अपने इस अकेलेपन में भी अन्त तक वह कितने तेजस्वी बने रहे-इस तथ्य से उनके घोर विरोधी भी इनकार नहीं कर सकते।
निर्मल जी के व्यक्तिगत जीवन की बहुत कम जानकारी पाठकों को है। अपने जीवन-काल में अपने पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में शायद ही कभी उन्होंने कुछ कहा हो। हाँ, माँ जी, बाऊ जी, बाबा जी, रामकुमार की बात यह बेझिझक कर लेते थे। स्वयं मेरे लिए निर्मल जी के जाने के बाद रामकुमार को लिखे उनके पत्र पढ़ना एक गहन अनुभव था।
मैं उन्हें जैसे एक चलचित्र में देख रही थी। एक संघर्षरत युवा लेखक, विदेश में अभावग्रस्त एक कलाप्रेमी, एक नन्हीं बच्ची के नये-नये बने पिता की उलझनें, पहली पत्नी बकुल के साथ उनके जीवन की झलक, जब वे युवा दम्पती विदेश में गृहस्थी जमाने की जुगत कर रहे थे, कम्युनिज़्म से उनकी गहरी निराशा, प्राग की बदलती राजनीतिक परिस्थितियों पर उनकी टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में छपीं टिप्पणियों की पीठिका, भीतर जमा होती रचनात्मक ऊर्जा, भारत लौटने की ललक, और अन्त में जीवन की विकट परीक्षाओं से गुज़रते हुए इस सत्य का अर्जन-लिखना ‘जैसे वह जीने का बहुत बड़ा सहारा हो’-रामकुमार को लिए 11 नवंबर, 1974 के पत्र (क्रमांक 39) में उन्होंने स्वीकार किया था। इस स्वप्निल ‘सहारे’ के लिए उन्हें अपने जीवन के कई वास्तविक, सुविधापूर्ण सहारे त्यागने के साहसपूर्ण फ़ैसले करने पड़े थे, जैसा रामकुमार को लिखे उनके इन पत्रों से स्पष्ट होगा। निर्मल जी के जीते-जी और मृत्युपरांत भी उन पर तरह-तरह के क्षुद्र आक्षेप होते रहे हैं। इन अर्द्धसत्यों ने उनके बहुत सारे पाठकों को विचलित किया है, मुझे भी। लेकिन अब वह आइने के दूसरी ओर चले गये हैं और मेरे पास दुनिया से साझा करने के लिए केवल यह आग है, उनके दस्तावेजों की आग, जिसमें से तप कर वह गुज़रे थे...
ये पत्र अपनी ऐतिहासिकता में आज इसलिए महत्वपूर्ण हैं, कि इनमें उनके मोहभंगों के सूत्र हैं। वह एक दिन में कम्युनिस्ट-विरोधी नहीं हो गये थे और न एक दिन में भारत-प्रेमी। उनकी प्रज्ञा मूलतः प्रश्नाकुल थी, आलोचक नहीं। अपने इस अदम्य साहस में वह उपनिषदिक परम्परा के उत्तराधिकारी कहलाने के अधिक निकट थे, बजाय औपनिवेशिक संस्कृति की पैदावार होने के।
अंग्रेज़ सरकार में पिता की नौकरी के कारण उनकी तालीम में अंग्रेज़ियत की प्रमुख भूमिका रही थी, और इसी कारण उन्हें ‘भारतीयता’ उतनी सहजता और बिना फांक उपलब्ध नहीं हुई थी, जितनी उनके कई मुखर आलोचकों को। लेकिन उन्होंने अपनी इस ऐतिहासिक स्थिति विशेष को न शर्मसारी का सबब बनने दिया, न अहं का। उनके आलोचक उन्हें शर्मसार करने में जुटे रहे, और उनके अधिकतर दुनियादार साथी अंग्रेज़ी दुनिया में सिक्का जमाने में।
निर्मल जी दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफ़न्स कॉलेज से निकलने वाले एक मात्र लेखक हैं जिन्होंने हिन्दी जैसी सादी भाषा को चुना। (सादी भाषा चुनना कई मायनों में सादी दुलहिन चुनने जैसा होता है, जहाँ आप उसके प्रेम के प्रति आश्वस्त होते हैं और दहेज न लाने के प्रति भी !) बरसों पहले, और आज भी, जब अधिकांश भारती विदेशी जूठन बनने के लिए प्रस्तुत थे/हैं, निर्मल जी केवल अपने अन्तःकरण की आवाज़ सुनकर भारत लौट आये थे, जैसा इन पत्रों से स्पष्ट है। उन्होंने अपनी अस्मिता की भारतीय पहचान को टुकड़ा-टुकड़ा अर्जित किया था। न केवल अपने लिए, बल्कि अपने जैसे उन सब व्याकुल सुधीजनों के लिए, जो एक औपनिवेशिक दास-समय द्वारा स्वयं के रेखांकित किये जाने से उनकी ही तरह व्यथित थे।
प्रायः निर्मल जी के अभावग्रस्त जीवन की चर्चा की जाती है, लेकिन मैं नहीं समझती, निर्मल जी ने जानते-बूझते अभाव का जीवन चुना था। उन्होंने केवल चुनाव किया था, उस भाषा में लिखने का चुनाव, जो उन्हें उनकी माँ की, उनके स्वप्न की बातचीत की भाषा थी। वह भाषा उन्हें जीवन भर साधारण वित्त का रखने वाली है, इस पर तो उन्होंने शायद कभी सोचा भी नहीं होगा, किसी के आगाह करने पर भी नहीं।
वह स्वप्न और आदर्श में जीने वाले व्यक्ति थे। जीवन के अन्तिम समय तक न उनके आदर्श धुँधले पड़े न उनके स्वप्न और निर्मल जी थे, कि जाते-जाते दोनों चीज़ें अक्षुण्ण पीछे छोड़ गये। और अपनी अदम्य, अथक जिजीविषा-जिसे अब मुझे और उनके पाठकों को भरपूर जी कर पूरा करना है। ऐसी परीक्षा वह हमारी जाते-जाते ले गये हैं...
निमर्ल जी को गये अभी दो माह ही हुए हैं। उनके जाने के बाद उनके कागज़ों को मैंने लगभग एक अन्धे व्यक्ति की तरह छुआ था, बिना किसी उम्मीद के, बिना यह जाने कि वह मेरे एकान्त को अपने कागज़-पत्रों से भर गये हैं...निर्मल जी के जाने के बाद उनकी असंकलित रचना-यात्रा की यह प्रथम प्रस्तुति है। अपने भाई चित्रकार रामकुमार को लिखे पत्र। आशा है, ये पत्र अपने समय के इन दो महान रचनाकारों की रचना-यात्रा की अंतरंगता को समझने में मदद करेंगे। मेरी भरसक चेष्टा होगी, कि मैं जल्द से जल्द निर्मल जी का अप्रकाशित लेखन, उस लेखन की छायाएं आपको समर्पित कर सकूँ। उनकी सारी एकांत साधना एक दिन अपने सब पाठकों से इस बिन्दु पर पहुँच कर मिलने के लिए ही तो थी !
खण्ड-1
प्रिय राम
निर्मल वर्मा के पत्र रामकुमार के नाम
प्रिय राम,
आज ही तुम्हारा पत्र मिला। आइसलैंडी मित्र का कार्ड भी उसके साथ था।
तुम्हें यह जानकर प्रसन्नता होगी कि तुम्हारी प्रदर्शनी की सब तैयारी हो गयी है। 25 जनवरी को उद्घाटन होगा। हुसैन की तस्वीरें अभी तक नहीं आयी हैं, अतः सिर्फ तुम्हारे चित्र ही प्रदर्शनी में होंगे। कुछ दिन पहले मैंने कैटालॉग भी देखा था...प्रूफ-रीडर उसे मुझे दिखाने के लिए लाये थे। शायद इस सप्ताह तक तैयार हो जाएगा। मैं उसकी कुछ प्रतियाँ तुम्हें भेज दूँगा। शाम लाल का लेख (चेक अनुवाद में) कैटालॉग में रहेगा।
प्रदर्शनी अब एक दूसरी गैलरी में होगी, जो शहर के बीच में है। हमारे घर के बहुत निकट।
लन्दन से लौटने पर डॉ. क्रासा एक बार घर आये थे। वह पेरिस में दो दिन ठहरे...पिकासो की प्रदर्शनी ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। लन्दन में तुमसे न मिलने पर उन्हें बहुत अफ़सोस था। कहते थे कि तुम आसानी से उनके कमरे में ठहर सकते थे।
नये वर्ष पर बकुल प्राग में ही थीं। हम उस शाम घर में ही रहे...कुछ मित्र शराब की बोतलें ले आये थे। बारह बजे शैम्पेन पी और फिर कुछ दे तक wenceles square में घूमते रहे। यह वर्ष प्राग में अन्तिम होगा, यह ख़्याल उस रात रह-रह कर मेरे भीतर भटक रहा था। किन्तु पीने के बाद मैंने सोचा, यह सही भी है...खूबसूरत चीज़ें ज्या़दा अर्से तक नहीं टिकतीं-कम से कम मेरे हाथों में नहीं-वे गा़यब हो जाती हैं-या मैं ख़ुद उन्हें बिगाड़ देता हूँ !
बकुल का स्वास्थ्य बीच में काफी गिर गया था, अतः अस्पताल से उन्होंने एक महीने पहले ही छुट्टी ले ली है। अब वे प्राग में ही हैं। यहाँ पर इन्हें सलाह-मशविरा देने वाला भी कोई नहीं है जिसके कारण मैं कभी-कभी काफी चिन्तित-सा हो जाता हूँ। इधर वह बेहतर हैं...1 यों घबराहट का कोई कारण नहीं है। बकुल की काफी इच्छा है कि छोटी भाभी गर्मियों में प्राग आयें। मौका मिलने पर वे किसी दूसरे देश भी जा सकती हैं। तुम लोगों को इस बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए।
कहानी-संग्रह के लिए तुम नामवरजी को ये कहानियाँ दे देना, जो मैं पीछे छोड़ गया था। कहानियों के शीर्षक ये हैं...(1) ‘बाहर’ (कहानी), (2) ‘धागे’ (कल्पना) (3) ‘पिछली गर्मियों में’ (सारिका) (4) ‘खोज’ (नयी कहानियाँ) (5) ‘कमरे’ (कल्पना)।
बाकी कहानियाँ मैं उन्हें भिजवा दूँगा। कारेल चापेक का कहानी-संग्रह तुमने देखा होगा। इस बीच मैंने एक छोटा-सा लेख (Letter from Prague) शाम लाल जी को भेजा था। यदि कभी उनसे मिलो, तो उसके बारे में पूछ लेना। यदि वह उन्हें ठीक लगा, तो मैं नियमित-रूप से उन्हें कुछ-न-कुछ भेजता रहूँगा। ‘नयी कहानियाँ’ बन्द हो रही है, यह जानकर काफी आश्चर्य हुआ। मैं समझता था, उसकी नींव काफी मज़बूत है। क्या सिर्फ़ आर्थिक कारणों से इसे बन्द कर रहे हैं ? स्वामीनाथन की पत्रिका का दूसरा अंक निकल गया होगा...यदि सम्भव हो, तो समुद्री डाक से उसे भिजवा देना।
यहाँ कुछ दिन पहले मैक्स अर्नस्ट की प्रदर्शनी देखने का अवसर मिला। मेरे लिए यह एक नितान्त नया अनुभव था...खासकर उनके लैंडस्केप्स जिनमें एक अलौकिक किस्म की शान्ति और नीरवता है। कुछ नयी फ्रेंच फ़िल्में भी देखीं हैं, किन्तु आजकल सांस्कृतिक कार्यवाईयों के लिए ज्यादा समय नहीं मिल पाता। पहले जैसा उत्साह अब सिर्फ़ फ़िल्मों तक ही सीमित रह गया है।
पिछले कुछ दिनों से यहाँ कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा है...समूचा प्राग सफेदी से ढँका जान पड़ता है। बर्फ बराबर गिरती है। तापमान सिफ़र से 15 डिग्री तक नीचे चला जाता है। आजकल बहुत से मित्र पहाड़ों पर स्कीइंग के लिए चले गये हैं। भीष्म का एक पत्र मिला था...शायद उनकी लड़की कल्पना कुछ दिनों के लिए प्राग आ रही है।
माँ जी कब तक कानपुर से लौट रही हैं ? क्या तुम भी पी. डब्ल्यू. ए. के सम्मेलन में गये थे ? कौन-कौन वहाँ आये थे। यदि अमृत अब भी दिल्ली में हों, तो उन्हें मेरी याद दिलाना।
अच्छा....पत्र भेजना। टुलू की आजकल छुट्टियाँ होंगी...दिन भर क्या करते हैं ?
आज ही तुम्हारा पत्र मिला। आइसलैंडी मित्र का कार्ड भी उसके साथ था।
तुम्हें यह जानकर प्रसन्नता होगी कि तुम्हारी प्रदर्शनी की सब तैयारी हो गयी है। 25 जनवरी को उद्घाटन होगा। हुसैन की तस्वीरें अभी तक नहीं आयी हैं, अतः सिर्फ तुम्हारे चित्र ही प्रदर्शनी में होंगे। कुछ दिन पहले मैंने कैटालॉग भी देखा था...प्रूफ-रीडर उसे मुझे दिखाने के लिए लाये थे। शायद इस सप्ताह तक तैयार हो जाएगा। मैं उसकी कुछ प्रतियाँ तुम्हें भेज दूँगा। शाम लाल का लेख (चेक अनुवाद में) कैटालॉग में रहेगा।
प्रदर्शनी अब एक दूसरी गैलरी में होगी, जो शहर के बीच में है। हमारे घर के बहुत निकट।
लन्दन से लौटने पर डॉ. क्रासा एक बार घर आये थे। वह पेरिस में दो दिन ठहरे...पिकासो की प्रदर्शनी ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। लन्दन में तुमसे न मिलने पर उन्हें बहुत अफ़सोस था। कहते थे कि तुम आसानी से उनके कमरे में ठहर सकते थे।
नये वर्ष पर बकुल प्राग में ही थीं। हम उस शाम घर में ही रहे...कुछ मित्र शराब की बोतलें ले आये थे। बारह बजे शैम्पेन पी और फिर कुछ दे तक wenceles square में घूमते रहे। यह वर्ष प्राग में अन्तिम होगा, यह ख़्याल उस रात रह-रह कर मेरे भीतर भटक रहा था। किन्तु पीने के बाद मैंने सोचा, यह सही भी है...खूबसूरत चीज़ें ज्या़दा अर्से तक नहीं टिकतीं-कम से कम मेरे हाथों में नहीं-वे गा़यब हो जाती हैं-या मैं ख़ुद उन्हें बिगाड़ देता हूँ !
बकुल का स्वास्थ्य बीच में काफी गिर गया था, अतः अस्पताल से उन्होंने एक महीने पहले ही छुट्टी ले ली है। अब वे प्राग में ही हैं। यहाँ पर इन्हें सलाह-मशविरा देने वाला भी कोई नहीं है जिसके कारण मैं कभी-कभी काफी चिन्तित-सा हो जाता हूँ। इधर वह बेहतर हैं...1 यों घबराहट का कोई कारण नहीं है। बकुल की काफी इच्छा है कि छोटी भाभी गर्मियों में प्राग आयें। मौका मिलने पर वे किसी दूसरे देश भी जा सकती हैं। तुम लोगों को इस बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए।
कहानी-संग्रह के लिए तुम नामवरजी को ये कहानियाँ दे देना, जो मैं पीछे छोड़ गया था। कहानियों के शीर्षक ये हैं...(1) ‘बाहर’ (कहानी), (2) ‘धागे’ (कल्पना) (3) ‘पिछली गर्मियों में’ (सारिका) (4) ‘खोज’ (नयी कहानियाँ) (5) ‘कमरे’ (कल्पना)।
बाकी कहानियाँ मैं उन्हें भिजवा दूँगा। कारेल चापेक का कहानी-संग्रह तुमने देखा होगा। इस बीच मैंने एक छोटा-सा लेख (Letter from Prague) शाम लाल जी को भेजा था। यदि कभी उनसे मिलो, तो उसके बारे में पूछ लेना। यदि वह उन्हें ठीक लगा, तो मैं नियमित-रूप से उन्हें कुछ-न-कुछ भेजता रहूँगा। ‘नयी कहानियाँ’ बन्द हो रही है, यह जानकर काफी आश्चर्य हुआ। मैं समझता था, उसकी नींव काफी मज़बूत है। क्या सिर्फ़ आर्थिक कारणों से इसे बन्द कर रहे हैं ? स्वामीनाथन की पत्रिका का दूसरा अंक निकल गया होगा...यदि सम्भव हो, तो समुद्री डाक से उसे भिजवा देना।
यहाँ कुछ दिन पहले मैक्स अर्नस्ट की प्रदर्शनी देखने का अवसर मिला। मेरे लिए यह एक नितान्त नया अनुभव था...खासकर उनके लैंडस्केप्स जिनमें एक अलौकिक किस्म की शान्ति और नीरवता है। कुछ नयी फ्रेंच फ़िल्में भी देखीं हैं, किन्तु आजकल सांस्कृतिक कार्यवाईयों के लिए ज्यादा समय नहीं मिल पाता। पहले जैसा उत्साह अब सिर्फ़ फ़िल्मों तक ही सीमित रह गया है।
पिछले कुछ दिनों से यहाँ कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा है...समूचा प्राग सफेदी से ढँका जान पड़ता है। बर्फ बराबर गिरती है। तापमान सिफ़र से 15 डिग्री तक नीचे चला जाता है। आजकल बहुत से मित्र पहाड़ों पर स्कीइंग के लिए चले गये हैं। भीष्म का एक पत्र मिला था...शायद उनकी लड़की कल्पना कुछ दिनों के लिए प्राग आ रही है।
माँ जी कब तक कानपुर से लौट रही हैं ? क्या तुम भी पी. डब्ल्यू. ए. के सम्मेलन में गये थे ? कौन-कौन वहाँ आये थे। यदि अमृत अब भी दिल्ली में हों, तो उन्हें मेरी याद दिलाना।
अच्छा....पत्र भेजना। टुलू की आजकल छुट्टियाँ होंगी...दिन भर क्या करते हैं ?
निर्मल
रामकुमार
14 ए/20, करोलबाग
नयी दिल्ली
14 ए/20, करोलबाग
नयी दिल्ली
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